Thursday, December 12, 2024

जब मैं कविता लिखता हूँ

एकाग्र मन से अब शब्दों में उलझकर शब्दों से खेलता हूँ 
शब्दों को पूज्यनीय चिंतनीय मान कर ये चादर बुनता हूँ 
खुद को लेकर थोड़ा चिंतित के मै क्या कब क्यों करता हूँ 
सत्य स्वर्ग में खुद को पाता हूँ जब मैं कविता लिखता हूँ   

उन्नति और सत्य को लेकर प्रगति की और जो चलता हूँ 
कुछ पंक्तियों से दुखी तो कुछ से खुद को देख मचलता हूँ 
खुद को सबसे बड़ा कवि समझ लोहो को श्रोता समझता हूँ 
माँ के चरण में बस सा जाता हूँ  जब मैं कविता लिखता हूँ   

लिखता तो ऐसे हूँ जैसे जग भूलकर खुद ज्ञानी से मिलता हूँ 
क्लेश विकारी व प्रेम बीमारी छोड़ ध्यान कलम पर रखता हूँ 
मिटते कटते है मेरे काले अतीत तभी मैं इसे अपना कहता हूँ 
मेरा प्यारा चेहरा हस खिल उठता है जब मैं कविता लिखता हूँ   

डायरी संसार के बाद इसे मैं तब मंचशाला पर लेकर उतरता हूँ
सम्मान मिले या ना मिले पर लोगो को सुना सुना सा लगता हूँ 
कविता का सरताज नहीं पर अपने शब्दज्ञान को हमेशा सुनता हूँ
शब्दों का महराज समझता हूँ खुद को जब मैं कविता लिखता हूँ

अंतिम कुछ भी नहीं है

सुनना, जानना, समझना, लड़ना और फिर जीतना 
मानो यही जीवन हो और यही हर रोज जानना 
तूफानों में पंख फैलाए उड़ना अब कम भी नहीं है 
तुम यूं ही लड़ना रोज क्योंकि अंतिम कुछ भी नहीं है 

देखना छुलेना फूंकना ढकेलना और फिर झकझोरना 
दिखादो मैदा को के तुम ही हो सबसे बड़े शेर यहां 
आसमां को छूकर आओ क्यूंकि तुम्हारी उड़ान अब कम भी नहीं है 
तुम यूं ही लड़ना रोज क्योंकि अंतिम कुछ भी नहीं

घिसाड़ना चलना दौड़ना और फिर ढकेलना
खिला दो क्यारी का हर फूल तुम ही सबसे बड़े माली यहां
नापों पर्वत की हर छोटी क्यूंकि तुम्हारी चाल कुछ कम भी नहीं हैं 
तुम यूं ही लड़ना रोज क्यूंकि अंतिम कुछ भी नहीं हैं 

अरे जनाब अब चाय पीजिए

हड़बड़ हड़बड उठिए और काम पे भागिये 
ध्यान को जरा ध्यान से काम पे लगाइए 
दिमाग, गर्म , टेंशन, तनाव चिंता फिक्र सब छोड़िए
मुस्कुराइए खुद से खुद में अरे जनाब अब चाय पीजिए

किसी से परेशान है तो उसे किनारे लगा दीजिए 
दिमाग को दिल के साथ लक्ष्य पर लगा दीजिए 
दिमाग गर्म टेंशन तनाव चिंता फिक्र सब छोड़िए 
मुस्कुराइए खुद से खुद में अरे जनाब अब चाय पीजिए

मत सोचिए इतना ,सोचिए पर दिल पर मत लगाइए
सोच को समझदारी के साथ अपने रास्तों पर लगा दीजिए 
दिमाग गर्म टेंशन तनाव चिंता फिक्र सब छोड़िए
मुस्कुराइए खुद से खुद में अरे जनाब अब चाय पीजिए

कप हो या कागज या कांच का गिलास उसे होठों से लगा लीजिए 
कुल्हड़ मे मिले तो मिट्टी में जीभ भी भिड़ा दीजिए
दिमाग गर्म टेंशन तनाव चिंता फिक्र सब छोड़िए 
मुस्कुराइए खुद से खुद में अरे जनाब अब चाय पीजिए 

खैर मैं कहीं जा भी नहीं सकता

खुद में रहने की आदत है मुझे
यूं तुम्हें अपने ख्यालों में मिला नहीं सकता 
आंखों से देखे ख्वाब, पैरों से पीछा करता रहा 
कितना थक गया हूं ये तुम्हें बता भी नहीं सकता 
खैर मैं कहीं जा भी नहीं सकता 

किसी को भी नहीं इजाजत की बिना मेरी मर्जी मुझे छू सके
मैं गर गिर भी जाऊं तो कोई मुझे उठा भी नहीं सकता 
अभी बहोत दूर तलक नहीं आया तो मैं यूं घबरा भी नहीं सकता
खैर मैं कहीं जा भी नहीं सकता

कुछ अधूरे ख्वाब है 
उनको पूरा करने की खातिर मेरे हाथ में मेरे वालिद की दवात है
जमाना गिरे तो गिर जाए 
मैं पिताजी की वो दवात हिला भी नहीं सकता
खैर मैं कहीं जा भी नहीं सकता l

बदनाम सड़क का किस्सा

जब मैं सड़क पर चलता हूं 
थोड़ा-थोड़ा डरता हूं 
डरता हूं कहीं कोई पीछे से कोई ठोक ना दे 
कहीं कोई चोट ना पहुंचा दे 
डरता हूं कहीं गिर न जाऊं 
कहीं घायल ना हो जाऊं 

डरता हूं कुछ अनहोनी ना हो जाए
कहीं कोई कहानी ना बन जाए 
और मैं यूं ही गुजर ना जाऊं 
कितना स्वार्थी हूं ना में 
सिर्फ खुद के बारे में सोचता हूं 
खुद तक और खुद के लिए सोचता हूं

आखिर ये सड़क भी तो डरती होगी
ये डरती होगी अपने कालेपन से
ये डरती होगी बदनामी से,
डरता होगा इसका एक एक हिस्सा 
क्यूंकि गांव में सुना है मैंने 
बदनाम सड़क का किस्सा !

वो घर याद आता है

वो घर याद आता है
मैं जब भी इस भोझिल हुई दुनिया से पककर 
मैं जब भी दुनिया के शोर शराबों से थक कर 
घर जाता था 
खूब सारे पेड़ों के बीच छिपा हुआ घर 
मुझे छिपा लेता था 
मेरी झूठी और सच्ची पहचान से 
उसे कोई मतलब नहीं था 
कि मैं कितना पढ़ा लिखा हूं 
और कितना पढूंगा लिखुंगा
आंधी और बरसात सबसे डटकर लड़ता था 

वो घर याद आता है 
उस घर में घुसते ही जो दरवाजा था
वो दादा की तरह ही उमरदार था 
थोड़ा धीरे खुलता था 
और घर में दरवाजे के बाद
एक पुराना तख्त और दो-चार पुरानी कुर्सियां 
बिल्कुल ही मेरे अरमानों की तरह थी 
लेकिन मां ने उस तख्त पर एक पुरानी चद्दर डाल रखी थी 
जो कि उस की सच्चाई छुपाती थी 
और उस घर की भी कीमत बढाती थी
वो घर याद आता है
कुर्सियों के जाल के बाद 
एक बड़ा सा आंगन 
जहां मैं कभी खेल नहीं पाया 
पर जीवन के सागर में जो भी बूंद बूंद
सी जब-जब छुट्टी मिलती थी 
मैं बैठता था उस आंगन में 
और निहारता था अपना सारा घर 
मां पिताजी का कमरा हो 
या शादी के बाद चिन्हित हुआ भाई भाभी का कमरा
या मेरा और मेरी बहनों का वो कमरा 
जिसमें छुपते थे हमारे कुछ छोटे-छोटे अरमान 
और दीवारों पर हमारी लंबाई तक का अनुमान 
और कमरे में वो जो बिछौना था
आह कितना जादुई था
जब भी मैं उसे ओढ़ता था
बेनींद सो जाता था
और तो और वो रसोई घर 
जहां से आता था
दुनिया के सबसे अच्छे होटल से भी अच्छा खाना
जिसे खाकर मैं सब भूल जाता था 
वो घर याद आता है

कितना कुछ मैं आंगन में बैठकर देख लेता था 
आंगन के साथ एक जीना भी था
जो मुझे और मेरी बहनों को 
आसमां तलक ले जाता था
और वो जीना जिंदगी के जीने से बिल्कुल अलग था 
ऊपर जाऊं तो भी घर नीचे आऊं तो भी घर 
और वो छत सच में कितनी सुंदर थी 
जो पेड़ों की बराबरी करने की कोशिश में थी
और चाहती थी आसमा को छू लेना
जो बारिश में खूब नहलाती थी
और कौन क्या बेचने आया है 
वहीं से दिखाई थी 
वो घर याद आता है

मैं कब का वो घर छोड़ आया हूं 
जिसने मुझे वो सब कुछ दिया 
जो कोई और दे नहीं सकता था 
मैं उसे अकेला तन्हा और तरसता हुआ छोड़ आया हूं 
वो घर याद आता है 

आंधी और बरसात में खड़कती होगी उसकी खिड़कियां
और चिल्ला चिल्ला कर मुझे बुलाती होगी 
उसे छूते हुए घर से मैं इतनी दूर आ गया हूं
की अब तो उसकी गिरती दीवारों की आहट भी 
अब मुझे भूल नहीं सकती क्योंकि मैं फिर एक नया घर
बनाना चाहता हूं पुराने घर से और दूर जाने की खातिर

गांव

अच्छा कितना प्यारा होता 
है ना गांव 
ना कमाने की फिक्र 
ना खर्चने का जिक्र 
शहर की सजावट इन इमारत व बतियों से
और गांव अब भी गेहूं की हरियाली 
और सरसों की पीली चादर ओढ़ता है
 
चिड़ियों का झुंड
और कुछ देसी कुत्ते 
और शाम को सूरज जैसे पेड़ों में छिप जाता हो 
बगुले मानो किसानों के साथ खेत संवारते हो 
और माटी मानो उसका अपना सा श्रृंगार हो 
रातों को मेंढक की टर्र टर्र हो या शियारो का हुयाना 
चूल्हे का वो धुआं और पेड़ों के हिलने तक की आवाज 
और रातों में जुगनू का अपनी बत्ती पर इतराना 

आत्माराम की चौराहे की चाय दुकान 
मानो फीका कर रही हो शहर का पुरा बाजार
सागोन की ऊंचाइयां और बेशर्म की वो झाड़ियां 
चिल चिलाती धूप के दुश्मन नीम और बरगद 
दादा की वो खटिया और दादी की तम्बाकू की चुनौटी 
गांव की बेटियों के शहर जाने के सपने 
भैंसों का ताजा दूध चाचा के कुत्ते का इतराना

गायों का उतावलापन 
नल का लोटा मे ठंडा ठंडा गंगा जैसा पानी
बगिया के आमों के पेड़ों के नाम
फरवार दुआर मोहार और किवाड़
और तो और उसपर
बनिया की चकरोट वाली दुकान 
नीम पर पड़ा झूला और धनतेरस का मेला
माहरीन का बुझाउआ दाना और राजेंद्र का सटला 
ढेबरी से लालटेन तक की तरक्की 
बरसात में भूनगो के डर से जल्दी खाना
और एक कार आने पर सारे मोहले का आ जाना
बला बला ना जाने कितना कुछ है बताने को
बस अब तो जी चाहता है गांव जाने को l

वो बच्चे

हम अक्सर कहते हैं 
कि हमें मिला ही क्या है 
हमें खुदा ने दिया ही क्या है
और न जाने कितनी चीजों को लेकर 
उलझे रहते हैं हम

हमारे दुख
हमारी नौकरियां और चंद पैसे
और कुछ ये खाक से बने इंसान 
न जाने क्या-क्या काफी कुछ चीज हैं 
जिनसे हम रहते हैं परेशान
ऐसी बहुत सारी परेशानियों से घिरा हुआ इंसान 
मैं उसे दूंगा एक काम की सलाह
वो ना जाए किसी बड़े अस्पताल 
न जाए शमशान 
पर पहुंचे किसी अनाथ आश्रम में 

जहां हों कुछ चांद सितारे 
जो हर रोज ही अंबर छूते हो
और हर रोज ही गंगा उनसे बहती हो
हर रोज ही धरती उनसे मिलती हो
जज्बात आभूषण हो जिनके
और अंबर मानो उनकी छत हो

और देखिएगा उनके हिस्से में क्या आया
और जाने कौन है उनके अपने 
और कौन उन्हें पुकारता यूं पुकारता होगा ?

मैं ये सब देख कर घर लौट तो आया
लेकिन वो
मासूम और दुनिया से बेफिक्र प्यारे चेहरे 
मेरे सारे जहां में घर लिए बैठे हैं 
लगता है जैसे मैं तो घर आ गया 
पर मेरा सब कुछ वह बच्चे लिए बैठे हैl

बरगद

एक बूढ़ा बरगद 
उम्र काफी थी 
और चौड़ाई इतनी कि उसको संभालने 
के लिए चबूतरा बनाना पड़ा 
जिसकी छांव में बैठ सके बच्चे 
और सो सके मजदूर 

किसी ने कहा इसमें भूत है
किसी ने कहा इसमें जींद है
किसी ने उसमे भगवान के होने का एहसास दिलाया 
लेकिन मुझे वो लगता था 
हजारो चिड़ियों का शजर
और कई गिलहरियों का घर 

बचाता था हमें गर्मी से
मानो हमारा तो सुंदर आसमा था 
चिड़ियों की चह चाहट इतनी 
कि मानो बरगद ही गाता हो

इतने बड़े वट में छोटे फल 
और टहनियां में दूध जैसा रस
न जाने कितनी बीमारियों का इलाज
और गिलहरियों का भोजन
लेकिन अब वो बरगद वहां नहीं है
कहां गए होंगे सब भूत और भगवान
पता नही
लेकिन ढूंढो ना उन चिड़ियों
और गिलहरियों को 
जिनका पता सिर्फ बरगद था

Friday, February 23, 2024

उम्मीद ही तो है

उम्मीद कितनी बेहतर चीज है 
मुझे कुछ तुमसे, कुछ तुमको मुझसे
जैसे धरती को आसमां से
और बच्चे को अपनी माँ से
उम्मीद पर ही तो टिका है ये सारा जहाँ 
जैसे किसान करता उम्मीद अंबर से 

उम्मीद ही तो है जो तुम्हें मुझे अक्सर चलाती है
और उम्मीद ही तो है, शहरी को गांव तक बुलाती है 
बस को सवारी से
सवारी को बस से 
हमें तुमसे तुम्हें हमसे 
कभी-कभी सोचता हूं 
अगर ये सभ्य उम्मीद ना होती
क्या हम यहां तलक आ पाते 
माउंट एवरेस्ट की चोटी को यूं हिला पाते 
उम्मीद है तो मैं तुम में 
और तुम मुझ में जिंदा हो 

उम्मीद कितनी बेहतर चीज है 
मुझे कुछ तुमसे कुछ तुमको मुझसे 
भूखे को भोजन से 
प्यासे को पानी से 
पानी को नदियों से 
और नदियों को समुद्र से 
पथिक को राह से और राह को पथिक से 
उम्मीद ही तो है मझदार को किनारो से 

पहाड़ों को घाटियों से 
राजा को रानियों से प्रेमी को प्रेमिका से 
कभी-कभी लगता है उम्मीद ही स्तंभ है 
घर की दीवारों को छत से और छत को दीवारों से
जवाब को अपने सवालों से 
उम्मीद है तो मैं तुम में 
और तुम मुझ में जिंदा हो!

Friday, February 2, 2024

घड़ी

एक सुबह घने कोहरे के बीच
मैं और पिताजी 
अपनी दिनचर्या को शुरू करने के लिए साथ चल रहे थे 

मैं असमंजस में था कि घड़ी कैसे चलती होगी 
कैसे ये वक्त बताती होगी 
और ये तीन सुइयाँ कैसे हर चीज़ का वक्त निर्धारित करती होंगी 
कैसे पता लगता है के क्या वक्त हो गया है?
पिता जी का दफ्तर का आना और जाना घड़ी ने निर्धारित कर रखा है
घड़ी ने नहीं बख्शा मां के घर के सारे कामों को
और तो और टेलीविजन पर दीदी के सारे प्रोग्रामो को 

यहाँ तक मेरे खेलने तक के समय में भी बैठी घड़ी
मेरे विद्यालय की सारी व्यवस्था में भी घड़ी 
और फिर घर की छोटी छोटी चीजों पर भी घड़ी 
घड़ी घड़ी घड़ी हाय ये घड़ी ……….

बस का घड़ी के वक्त से आना 
और ट्रेन का इसी के वक्त से चलना 
आसमां में उड़ते जहाज को भी उड़ने और उतरने
के लिए चाहिए घड़ी ,
ऐसे लगता था जैसे मानो चारों ओर सिर्फ घड़ी ही हो 
और ये सारा जहां सिर्फ घड़ी के इर्द - गिर्द घूम रहा हो
ये धरती ये अंबर सब लगा रहे हो इसके चक्कर 

मुझे लगा अगर मुझे घड़ी देखने आ गया 
तो मैं भी इस जहां के साथ चल सकता हूँ 
छोटा बच्चा सच में काफी छोटा होता है
मैंने अपने पिताजी से बड़े प्यार से पूछा 
"पापा मुझे घड़ी देखना सिखा दोगे?"
पर पापा ने मुझे पाँच के पहाडे को याद करने की सलाह दे दी ,
मैं पापा की सलाह मानता कैसे नहीं
और मैंने तीन से पहले पाँच का पहाड़ा याद कर लिया 

अगली सुबह फिर मेरे वही कुछ सपने
मैने पिता जी से फिर कहा 
मुझे सिखा दो ना घड़ी देखना 
ताकि मैं चल सकूं इस सकल विश्व के साथ 
और देख सकूं हर वक्त घड़ी 
और हर वक्त चल सकूं घड़ी के साथ 

पापा के चेहरे पर दिखी इक मुस्कान
और थोड़ा सा मुझे याद हुए
5 के पहाडे का अभिमान 
पापा ने बता दी मुझे वो तरकीब 
तब से लेकर अब तक कैद मे हूं 
घड़ी के जाल में
अब तो ये मेरे इतना नजदीक आ गई है
की मेरी ही बाईं कलाई पर घर है इसकाl

Wednesday, January 31, 2024

अब वक्त कहां?

सोचता हूँ संभालू हवा का रुख 
और सर्द हवा को अपने हाथों से रोक दूँ 
ये भी वही है वो भी वही थे 
ये वो सब एक से हाँ बदला नहीं जहाँ 
क्या करते हो नील अब इन सब को वक्त कहाँ 

चाहता हूँ, सूरज को जल्दी छत पर ला दूँ 
और धूप को जब चाहूँ छांव बना दूँ 
वही है राम, वही कृष्ण हां बदला नहीं जहाँ
क्या करते हो नील अब इन सब को वक्त कहाँ 

प्रयासरत हूँ की धरती को थोड़ा चपटा दूँ 
और सभी समुद्र को घर की थाली में समा दूँ
वही अंधेरा है वही है कालापन बदला नहीं जहाँ 
क्या करते हो नील अब इन सब को वक्त कहाँ 

सोचना चाहना और चिंतन करना छोड़ो
सुनो अब तुम आकाश की ओर उड़ो 
वही है पिता जी ,वही है माँ बदला नहीं जहाँ
क्या करते हो नील अब इन सब को वक्त कहाँ?

कितना अकेला हूँ मैं

इसका हूँ के उसका हूँ 

ना जाने मैं किस-किस का हूँ 

किसी का प्यारा तो किसी का खास हूँ 

कहीं मस्त तो कहीं अलबेला हूँ मैं 

दुनिया के इस जंजाल में कितना अकेला हूँ मैं 


कहने को कई दोस्तो का दोस्त हूँ 

और कुछो का तो अनजाना रिश्तेदार हूँ 

किसी की आश तो किसी की उम्मीद हूँ

कहीं खुशी तो कहीं बड़ा झमेला हूँ मैं 

दुनिया के इस जंजाल में कितना अकेला हूँ मैं 


कहीं तारा तो कहीं सूरज हूँ

किसी की गद्दी तो किसी का सरताज हूँ 

इस करोड़ों की आबादी में किसी का पुखराज हूँ 

कहीं एकदम आसान तो कहीं बड़ा हठेला हूँ मैं

दुनिया के इस जंजाल में कितना अकेला हूँ मैं


ये जंग अकेले जीतनी है मुझे मैं जानता हूँ 

ये सारा सफर अकेले तय करना है मुझे, मैं जानता हूँ 

इस भीड़ में पुष्पों सा खिलना है मुझे, मैं जानता हूँ 

कहीं बेशर्म तो कहीं बड़ा शर्मीला हूँ मैं

दुनिया के इस जंजाल में कितना अकेला हूँ मैं !

अहम का वहम !

सूरज की ललछइयां लगी जैसे रंगों की कलम
चदाँ की चाँदनी मानो हो गजलों की नज्म 
वो भी लगते रहे खास जैसे राह के सनम 
टूटता आया है टूटता रहेगा हमारा अहम का वहम 

बचपन में खिलौनों को जहाँ मान बैठे थे हम
धरती के नीचे एक दूसरी दुनिया है जान बैठे थे हम
एक-एक करके टूटते गए हमारे सारे भर्म 
टूटता आया है टूटता रहेगा हमारा अहम का वहम 

दुनिया को बस घोसले तक जानते थे हम
अंडे को बस जन्म का ग्रह मानते थे हम
अब जाकर समझ आया क्या है धर्म 
टूटता आया है टूटता रहेगा हमारा अहम का वहम 

बहने पूरे जीवन साथ रहेंगी मानते थे हम 
क्या पता था उनको भी जाना होगा एक अनजाने घर
वह चीज जिसके लिए लड़ते थे हम अब है नम
टूटता आया है टूटता रहेगा हमारा अहम का वहम!

पर्वत और चिड़िया का संवाद

हाँ हाँ मैं ही हूँ सबसे कठोर
और मैं ही सबसे शक्ति शाली
पर्वत हूँ मैं, इतनी ऊँचाई है मुझमें
बला बला बला... 

तभी उड़ी इक चिड़िया 
और सीधा जाकर बैठी
सबसे ऊँचे पर्वत की
सबसे ऊँची चोटी पर 
और गीत प्यार के गाने लगी
"हो पंख अगर तो 
क्या पर्वत क्या अंबर, सब नापे जा सकते है"

बाकी है

चढ़ना है ऊँचे पहाड़ों पर और लगानी है कई लम्बी छलांग हमे 
मिलना है हर पक्षी से और अभी कई पेड़ों का हिसाब बाकी है

जानना है धरती कितनी गोल है और कितना ऊँचा है आसमां 
पूछना है हर पथिक से कि और कितनी राह अभी बाकी है 

देखने हैं सारे मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर और कई तो गुरुद्वारे 
सुननी है गूंगो की सारी बातें और मेरी भी कुछ बात अभी बाकी है 

पहुंचना है वहाँ जहाँ कोई अब तलक पहुँच नहीं सका है 
करना है महसूस कि किसमे कितना अभी अपनापन बाकी है

लिखना है धरती ,अंबर और ये सारा नभ संचर 
कितने शमशान में जल गए और कितने जाने अभी बाकी हैं 

मेरे जिस्मों जहन के अभी कुछ ख्वाब बाकी है 
कि मुझे अभी मत मारो अभी मेरी कुछ किताब बाकी है l

Saturday, January 20, 2024

मैं चाहता हूँ, तुमसा बनना मेरी माँ।

कैसे दिन से पहले दिन करती हो माँ 

और सूरज से भी पहले तुम उठती हो माँ

फिर बिना इत्र के घर को महका देती हो माँ 

पूरा घर कैसे अपने इन्हीं हाथों से उठा लेती हो माँ

मुझे नहीं बनना कुछ बस मैं चाहता हूँ, तुमसा बनना मेरी माँ


कई लोगों से मिला और कइयों से बिछडा मैं माँ

कहीं हारा कहीं कुछ छूटा और फिर खाली हाथ लौटा मैं माँ

खाली हाथ घर आके तुम्हें देख लगा जैसे मैं ही खुदा हूँ माँ

आपका सिर्फ चेहरा ही मानो मेरी जन्नत हो माँ

मुझे नहीं बनना कुछ बस मैं चाहता हूँ, तुमसा बनना मेरी माँ


कई दफा तुमसे कैसे लिपट कर जोर से रोया मैं माँ

यहां पर लेकिन मैं अकेला नहीं हूँ मेरे साथ एक शब्द है माँ 

कोशिश में हूँ और एक दिन घर लौटूंगा मैं माँ 

और तुम्हारी तरह ही तुमसे लिपटकर तुम्हें ठीक कर दूंगा माँ 

मुझे नहीं बनना कुछ बस मैं चाहता हूँ, तुमसा बनना मेरी माँ 


अभी भी मेरा मन हर बीमारी में डॉक्टर से पहले तुम्हें याद करता है माँ

माँ सुनो ना मैं थोड़ा सा यहां बीमार हूँ कई ऐसी बीमारियों का

जिनका तुम्हारे सिवा कोई डॉक्टर नहीं और ना ही कोई इलाज माँ 

मेरे बिना ही कुछ किये मुझे राजा बताती हो माँ 

मुझे नहीं बनना कुछ बस मैं चाहता हूँ, तुमसा बनना मेरी माँ!


पापा की एक आवाज़

गेहुआ रंग और मुझ से थोड़ा सा छोटा कद 
और झुरीयों का स्वागत करते उनके गाल 
पहले से हल्के हाथ और सिकुड़ती उनकी खाल
भले कहूं मैं बेपरवाह या अब अच्छे नहीं है आप 
पापा आपकी ऊंचाई आपकी उम्र में आकर ही समझ आएगी
पापा कई बार मन करता है के डांट के करे कोई आगाज़
पर हां पापा बहुत शुकूं भरी होती है आपकी इक आवाज

हां अभी मैं जवानी के नशे में बुढ़ापे को नहीं समझ पाता
मैं चलता हुं पर आपकी तरह कतई नहीं चल पाता 
पापा कर दो ना मुझे फिर से इतना छोटा के समा जाऊं आपकी बाहों में 
पापा आपकी डांट नीम सी है जो कड़वी है पर बड़ी गुडकारी है 
पापा कई बार मन करता है के डांट के करे कोई आगाज़
पर हां पापा बहुत शुकूं भरी होती है आपकी इक आवाज
-नीरज 

शहर आज परेशान है

ये शहर आज परेशान सा क्यूं है 
शायद इसे याद आया हो कुछ अतीत
वो पहले की हवा वो चिड़ियों की मधुर आवाज
लह लहाती सरसों दूर-दूर तक हरियाली 
शायद शहर का गम बड़े मकान में 
और इन बड़ी चौड़ी सड़कों में दफ्न हो 
मनो ये शहर आज परेशान है 

ये शहर आज परेशान सा क्यूं है 
शायद इसे याद आया हो कुछ अतीत
वो गांव की कच्ची सड़के कच्चे मकान
वो पीपल, बरगद और नीम पे पड़ा झूला 
और वो जुगनू की चमक और शियारो का हुय्याना 
शायद शहर का गम इन लप-लपाती लाइटों में दफ्न हो 
मानो ये शहर आज परेशान है

 ये शहर आज परेशान सा क्यूं है 
शायद इसे याद आया हो कुछ अतीत
वो बारिश के बाद मिट्टी का महकना और चाहंटा
रात से पहले सबका सो जाना और कुत्ते बिल्लियों का पहरा
शायद शहर का गम गलियों के बड़े दरवाजों व उन पर खड़े
पहरेदारों और बारिश के बाद चम चमकती नई सड़कों में दफन हो
मानो ये शहर आज परेशान है।
-नीरज 

बस अब बहोत हुआ

कहां गई समझ तुम्हारी कहां गए वो तारे 
वो बातें जिनका दीवारों तक पर होता था असर
खुद को तोड़ना यूं रोज-रोज अक्हुच्छ हुआ 
जो हुआ सो हुआ मानो बस अब बहोत हुआ

हनुमत वीर अपनी शक्ति अब पहचानो 
अपनी दिशा में थोड़ा और उजाला अब डालो 
जरा सा अंधेरा था ए अब सब उजियाला कर डालो 
जो हुआ सो हुआ मानो बस अब बहोत हुआ

मरे तो मर जाए ये सारा जहां तुम में,तुम तो हो
अगर नहीं तो फिर ढूंढो और इंसा तो बनावो
अब इस बात का चिंतन बहुत हुआ
जो हुआ सो हुआ मानो बस अब बहोत हुआ।
-नीरज 

वो फूल नहीं कांटे थे

जो बीत गए हम और हो गए हमारा कल 
और जिन रातों ने शुकुं से हमें सोने ना दिया कल 
और दिन में खूब उदासी का दफन बने थे 
जो बीत गए ऐसे लम्हे वो फूल नहीं कांटे थे 

कांटों से इतना प्रेम ही क्यों जब चुभना उनका कर्म 
हां जब जन्म लिया था कांटों ने तब थे वो बड़े नर्म 
नरमी बाद बने सख्त जो वही हाथ चरते थे
जो बीत गए ऐसे लम्हे वो फूल नहीं कांटे थे 

वृक्ष में फूलों से पहले अक्सर ही कांटे आते हैं 
भला उन कांटों के चक्कर में हम फूल क्यूं भूलाते हैं 
फूल हो फूल से जियो ना कि वो जो झाड़ी थे
जो बीत गए ऐसे लम्हे वो फूल नहीं कांटे थे 

खुद को उनसे निकाल कर लाना और नए होना
देखना पुखराज हीरे हो और हीरे को पाना
टूटे गिलास टूटे तारे इनके कहां इतने चिंतन थे
जो बीत गए ऐसे लम्हे वो फूल नहीं कांटे थे 

अब फूलों की बारी है और फेंको इन कांटों की झड़ी को
सुगंध लो दिल जीत लो और फेंक दो उन झाड़ी को
वो तुम्हें झुकाते गिराते रुलाते और गिड गिडवाते थे
जो बीत गए ऐसे लम्हे वो फूल नहीं कांटे थे 

कहीं गई तुम्हारी सुंदरता या चंचलता क्या 
या अंत हुआ उस तेज का जिस पर था तुमको नाज़
चिल्लाओ उठाओ भगाओ उन्हें जो तुम्हें डुबोते थे
जो बीत गए ऐसे लम्हे वह फूल नहीं काटे थे 

मुस्कुराओ और चमको है धरती के राज पुत्र
ए जग सारा का सारा तुम्हारा है और तुम ही हो इसके पुत्र
महको जग महकेगा तुम थे ईश्वर वो नश्वर थे 
जो बीत गए ऐसे लम्हे वो फूल नहीं कांटे थे।
-नीरज

अब हम हम हो जाते है।

क्या हुआ अगर आज तेरे घर की छत पर उजाला नहीं
क्या हुआ अगर आज तेरे घर की रसोई में निवाला नहीं
बस तनिक तनिक हिम्मत से दृढ़ तुंग भी हट जाते हैं 
चलो अब अपनी परवरिश के लिए हम हम हो जाते हैं 

क्या हुआ अगर समय तेरा समावेश नहीं 
क्या हुआ अगर तेरा कोई परिवेश नहीं 
सैंकेंडो की सुई से सिखो क्षण क्षण पुरे घंटे बन जाते हैं 
कब तक यूं इतराओगे चलो अब हम हम हो जाते हैं

क्या हुआ अगर तुझ पर किसी का हाथ नहीं 
क्या हुआ अगर बज उड़ा बिन बारात नहीं 
धीरे-धीरे बस रुकना नहीं रास्ते अपने आप खत्म हो जाते हैं
मिलेगा यह कतरा दरिया में तो चलो हम हम हो जाते हैं।
-नीरज 

बस एक कदम और

चलिए ना मत ठहरिए सच में ठहरना ठीक नहीं
हे नभ संचर से शक्तिशाली हे हिमनिद्र
तुम्हीं अर्जुन के गांडीव, हे शिव के कोदंड को 
तोड़ने वाले राम बस एक कदम और।

चलिए ना मत ठहरिए सच में ठहरना ठीक नहीं
चलते रहो और लिखते रहो और रखो याद इतिहास
हे सम्राट से विजेता और हे अंग्रेजों को 
भगाने वाले गांधी बस एक कदम और

चलिए ना मत ठहरिए सच में ठहरना ठीक नहीं 
गढ़ते रहो खुद में मोती और तरासो हीरे
हे चाणक्य के चंद्रगुप्त हे भारतवर्ष के
सम्राट बस एक कदम और

चलिए ना मत ठहरिए सच में ठहरना ठीक नहीं
खुद को जानो पहचानो हे हनुमान खुद ही बानो
खुद के जामवंत और कर दो पार
ऐ विशाल समुद्र बस एक कदम और ।
- नीरज 

Friday, January 19, 2024

रातें जागी है तो कहानियां तो बनेंगी

ना घबरा ना डर अब चल उठ वीर किस्मत तो चमकेगी
रोशनी अब सूर्य से ही नहीं चंदा से भी निकलेगी 
जिन जड़ों में जकडा है तू वही तेरी जफर की विशात देंगी 
क्या कहते हैं वो ना सुन तूने रातें जागी हैं तो कहानियां तो बनेंगी 

रिश्ते नाते यार व्यवहार सब की हिकमत बदलेगी 
मां वही फिर बचपन की लोरियां गढ़ेगी 
पिताजी की अंधरी दुनिया रोशनी में तब बदलेगी 
क्या कहते हैं वो ना सुन तूने रातें जागी हैं तो कहानियां तो बनेंगी 

जो खड़े हैं बाजार में बताते तेरे किरदार को
दे इन्हें सहलाने की चोट हो जोरदार जो
बदले पछतावे की नहीं ये वो जो जग में झलकेगी 
क्या कहते हैं वो ना सुन तूने रातें जागी हैं तो कहानियां तो बनेंगी ।
-नीरज 

क्या-क्या बताऊं

मेरी समता बताऊँ या मेरी विषमता बताऊँ

मेरी सफलता बताऊँ या मेरी विफलता बताऊँ

मेरे टूटे हुए सपने बताऊँ या पूरे हुए ख्वाब बताऊँ

बातों के पिटारों से सोचता हूं तुम्हें क्या-क्या बताऊँ  


मेरी नादानियां बताऊँ या मेरी चालाकियां बताऊँ

मेरी समझदारियां बताऊँ या मेरी बेवकूफियां बताऊँ 

मेरे कुछ दोस्त बताऊँ या मेरे कुछ दुश्मन बताऊँ 

बातों के पिटारों से सोचता हूं तुम्हें क्या-क्या बताऊँ  


मेरे उजले दिन बताऊँ या मेरी काली रातें बताऊँ

मेरा कुछ डर बताऊँ या मेरी कुछ ताकत बताऊँ

मेरा हंसना बताऊँ या मेरा रोना बताऊँ

बातों के पिटारों से सोचता हूं तुम्हें क्या-क्या बताऊँ  


मेरी लिखावट बताऊँ या जो लिख नहीं सका वो बताऊँ

मेरी पढ़ी-लिखी इलम बताऊँ या जो पढूंगा वो बताऊँ

मेरे कुछ अच्छे रंग बताऊँ या मेरे कुछ बुरे ढंग बताऊँ

बातों के पिटारों से सोचता हूं तुम्हें क्या-क्या बताऊँ ।

-नीरज 

Thursday, January 18, 2024

मेरे गांव की वो सड़क

सवेरे सवेरे उठ कर दिखती थी जो सड़क 

जोड़ती थी मेरे घर को बड़ी सड़क से वो सड़क

कहीं ठीक तो कहीं जरा सी टूटी-फूटी वो सड़क

ज्यादा चौड़ी नहीं ना ज्यादा छोटी है वो  सड़क

आखिर कैसी भी है याद आती है मेरे गांव की वो सड़क


कुछ दूर चला जाता था तब भी घर दिखाती वो सड़क 

मैं कहीं ठहर जाता तो धूप से मुझे बचाती वो सड़क

पेड़ों से घिरी खेतों किनारे, घांसो से भरी वो सड़क 

ज्यादा चौड़ी नहीं ना ज्यादा छोटी है वो सड़क

आखिर कैसी भी है याद आती है मेरे गांव की वो सड़क


मेरे घर अक्सर खुशियां लाती है वो सड़क

मासी बुआ नाना नानी सबको घर लाती है वो सड़क 

दिवाली की मिठाई होली के रंग, राखी पे राखी लाती है वो सड़क

ज्यादा चौड़ी नहीं ना ज्यादा छोटी है वो सड़क

आखिर कैसी भी है याद आती है मेरे गांव की वो सड़क

-नीरज 




जब मैं कविता लिखता हूँ

एकाग्र मन से अब शब्दों में उलझकर शब्दों से खेलता हूँ  शब्दों को पूज्यनीय चिंतनीय मान कर ये चादर बुनता हूँ  खुद को लेकर थोड़ा चिंतित के मै क्य...