दिन कुछ यूँ शुरू हुआ
प्रातः लालिमा सूर्य की ललछर कर बैठी शहर
कहीं चाय की चुस्की
कहीं प्लेटों में भरा है जमके नाश्ता
पर ये क्या
निकल पड़े क्यों कुछ छोटे-छोटे बच्चे
लेकर बड़े-बड़े थैले
मेरा भी दिन चाय की चुस्की से शुरू हुआ
फिर यूं मेरी चाय छोड़ दी मैंने
और उन बड़े-बड़े बोरे लिए बच्चों के आगे डट गया
पूछा कहां को चले
आवाज आई जाने दो भैया नहीं तो
आज हम फिर भूखे सो जाएंगे
हाँ अब सूर्य खिल गया
कोई दफ्तर कोई विद्यालय
कहीं कहीं कोई कोई निकल गया
मैं फिराक में अभी रास्ते में रुक रहा
बड़े-बड़े थैले लिए वो बच्चे
सूर्य की भांति लौट पड़े
बोरी में वजन काफी था
न जाने क्या था क्या उसमें बाकी था
फिर रोकने की चाह से रोका उनको
सूर्य की धूप ने उन सूर्य का
हौसला बढ़ा दिया था
शायद मेरे प्रश्नों का उत्तर था
अब पूछ लो भैया अब हम
आज भूखे नहीं सो पाएंगे
मेरे प्रश्न का उत्तर मुझे मिल चुका था
कुछ दूर उन थैलो को पहुँचाने की मांग थी मेरी
वो दो ने मानी तीन ने ठुकरा दी
आखिर मैं जीता उन विजयी रणधारों से
दो का थैला बस कुछ कदम ले चल
मैं थक गया
शायद मेरी चाय और मेरा महंगा खाना
मुझे जवाब दे रहे हो
कब तक ऐ बच्चे यूँ बोरे उठाएंगे
जो बस्तो से भारी बोरा है वो कहां तक ले जाएंगे
अच्छा सूर्य तुम तो मेरे मित्र हो
मुझे समझाओ
तुम्हारी किरण इनको रोशन नहीं करती
कर दो इन बोरो का वजन कम
ऐ सूर्य नहीं तो ऐ आज फिर भूखे सो जाएंगे!
-नीरज