Wednesday, April 29, 2020

जिंदगी तुम इलाहाबाद क्यूँ नहीं हो जाती !

देर रात सोकर भी प्रातः जल्दी उठने लगा हूँ
कहां तो संगम का किनारा था कहां बाथरूम में नहाने लगा हूँ  
वही पढ़ना फिर पढ़ना जो वक्त बचे उसमें भी पढने लगा हूं  
अब ये थकावट की रातें आबाद क्यूँ नहीं हो जाती 
थक गया हूं ऐ जिंदगी तुम इलाहाबाद क्यूँ नहीं हो जाती !

मुझे लोग अब समझते नहीं ये बात मैं अब समझने लगा हूं 
वही साइकिल की सवारी,साइकिल की दौड़ पर अब पैदल चलने लगा हूं 
सब कुछ पढ़ना समझना चाहता हूं पर रातों में अब आँख थकने लगी है 
शायद ये बेइंतेहा सफर है मेरा अब ये राहें उन्माद क्यूँ नहीं जाती  
थक गया हूं ऐ जिंदगी तुम इलाहबाद  क्यूँ  नहीं हो जाती ! 

सुना है तुमने अपना नाम खो दिया अब तो मैं भी खोने लगा हूं 
संगम प्रयाग सलोरी विश्वविद्यालय सब होंगे वंही देखो क्या मैं दिखने लगा हूं 
जिंदगी तेरे खूब नोट्स बनाए कई पन्ने भर दिये अब तो तुझे दोहराने लगा हूं 
कमर की पीड़ा देख मेरा हौसला बर्बाद क्यूँ नहीं हो जाती 
थक गया हूं ऐ जिंदगी तुम इलाहबाद क्यूँ नहीं हो जाती !

सरकारी निजी सब पुस्तकालय छोड़ खुद को इक कमरे में कैद पाने लगा हूँ  
कहाँ वो बरगद के नीचे कुल्हड़ की चाय यंहा खुद की बनी चाय पिने लगा हूँ 
किसी दिन तो निकलेगा सूरज मेरा ये बातें जिंदाबाद क्यूँ नहीं हो जाती 
थक गया हूं ऐ जिंदगी तुम इलाहबाद क्यूँ नहीं हो जाती !
#नीरज 

उम्मीद ही तो है

उम्मीद कितनी बेहतर चीज है  मुझे कुछ तुमसे, कुछ तुमको मुझसे जैसे धरती को आसमां से और बच्चे को अपनी माँ से उम्मीद पर ही तो टिका है ये सारा जहा...