मैदानों को ये दिन प्रतिदिन मैं आभास कराताइक राह सुगम बेशक धीरे-धीरे मैं आज बनातामिट्टी वैसी सजी नहीं कुछ उथल पुथल उफान में हूंतनिक धीरे ही सही पर हाँ मैं मैदान में हूं !कुछ ने कहा लौट जाओ हां मैं भी उन्हें क्या बतातायह पालक की खेती नहीं हाँ मैं क्युं गाजर का आभास दिलाताशांति है बाहर कितनी पर अंदर इक तूफान में हूंतनिक धीरे ही सही पर हाँ मैं मैदान में हूं !खेल देखने वालों को नहीं पर मैदां को मैं हर रोज दिखातामालिक दिया नहीं जुगनू हूँ रात में ऐसे कैसे बुझा जाताखूब हार हारा हूं मगर मन की कुटिया के विजय विमान में हूंतनिक धीरे ही सही पर हाँ मैं मैदान में हूं !अब वापस लौट सकता नहीं यूं बताओ कैसे मैं रुक जातागीत में लोरी में हर संध्या माँ से धीरज मैं पाताखट्टा बेशक है ये फल पर मैं इसके स्वाद में हूँतनिक धीरे ही सही पर हाँ मैं मैदान में हूं !राहें जानती हैं मेरे कदमों व चाल मेरे भार कोक्या परिचय दूं मैं खेत व तेरे खलियान कोयूं ही आऊंगा यूं ही चलूंगा मैं इक नशे के जहान में हूंतनिक धीरे ही सही पर हाँ मैं मैदान में हूं !धीरे से अंधेरे में देर तक कोने में निखार इक इंसान कोकलम किताब पन्नो को एहसास करा खुद के किरदार कोसूर्य की भांति रोज निकलता मैं तो बादलों में अकेला मेहमान हूंतनिक धीरे ही सही पर हाँ मैं मैदान में हूं !-नीरज नील
Wednesday, June 3, 2020
हाँ मैं मैदान में हूं !
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जब मैं कविता लिखता हूँ
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