Wednesday, June 3, 2020

हाँ मैं मैदान में हूं !

मैदानों को ये दिन प्रतिदिन मैं आभास कराता
इक राह सुगम बेशक धीरे-धीरे मैं आज बनाता 
मिट्टी वैसी सजी नहीं कुछ उथल पुथल उफान में हूं
तनिक धीरे ही सही पर हाँ मैं मैदान में हूं ! 


कुछ ने कहा लौट जाओ हां मैं भी उन्हें क्या बताता
यह पालक की खेती नहीं हाँ मैं क्युं गाजर का आभास दिलाता
शांति है बाहर कितनी पर अंदर इक तूफान में हूं
तनिक धीरे ही सही पर हाँ मैं मैदान में हूं ! 


खेल देखने वालों को नहीं पर मैदां को मैं हर रोज दिखाता
मालिक दिया नहीं जुगनू हूँ रात में ऐसे कैसे बुझा जाता
खूब हार हारा हूं मगर मन की कुटिया के विजय विमान में हूं
तनिक धीरे ही सही पर हाँ मैं मैदान में हूं !


अब वापस लौट सकता नहीं यूं बताओ कैसे मैं रुक जाता
गीत में लोरी में हर संध्या माँ से धीरज मैं पाता
खट्टा बेशक है ये फल पर मैं इसके स्वाद में हूँ
तनिक धीरे ही सही पर हाँ मैं मैदान में हूं ! 


राहें जानती हैं मेरे कदमों व चाल मेरे भार को 
क्या परिचय दूं मैं खेत व तेरे खलियान को 
यूं ही आऊंगा यूं ही चलूंगा मैं इक नशे के जहान में हूं
तनिक धीरे ही सही पर हाँ मैं मैदान में हूं !


धीरे से अंधेरे में देर तक कोने में निखार इक इंसान को
कलम किताब पन्नो को एहसास करा खुद के किरदार को
सूर्य की भांति रोज निकलता मैं तो बादलों में अकेला मेहमान हूं
तनिक धीरे ही सही पर हाँ मैं मैदान में हूं !
-नीरज नील 

No comments:

Post a Comment

उम्मीद ही तो है

उम्मीद कितनी बेहतर चीज है  मुझे कुछ तुमसे, कुछ तुमको मुझसे जैसे धरती को आसमां से और बच्चे को अपनी माँ से उम्मीद पर ही तो टिका है ये सारा जहा...