है ना गांव
ना कमाने की फिक्र
ना खर्चने का जिक्र
शहर की सजावट इन इमारत व बतियों से
और गांव अब भी गेहूं की हरियाली
और सरसों की पीली चादर ओढ़ता है
चिड़ियों का झुंड
और कुछ देसी कुत्ते
और शाम को सूरज जैसे पेड़ों में छिप जाता हो
बगुले मानो किसानों के साथ खेत संवारते हो
और माटी मानो उसका अपना सा श्रृंगार हो
रातों को मेंढक की टर्र टर्र हो या शियारो का हुयाना
चूल्हे का वो धुआं और पेड़ों के हिलने तक की आवाज
और रातों में जुगनू का अपनी बत्ती पर इतराना
आत्माराम की चौराहे की चाय दुकान
मानो फीका कर रही हो शहर का पुरा बाजार
सागोन की ऊंचाइयां और बेशर्म की वो झाड़ियां
चिल चिलाती धूप के दुश्मन नीम और बरगद
दादा की वो खटिया और दादी की तम्बाकू की चुनौटी
गांव की बेटियों के शहर जाने के सपने
भैंसों का ताजा दूध चाचा के कुत्ते का इतराना
गायों का उतावलापन
नल का लोटा मे ठंडा ठंडा गंगा जैसा पानी
बगिया के आमों के पेड़ों के नाम
फरवार दुआर मोहार और किवाड़
और तो और उसपर
बनिया की चकरोट वाली दुकान
नीम पर पड़ा झूला और धनतेरस का मेला
माहरीन का बुझाउआ दाना और राजेंद्र का सटला
ढेबरी से लालटेन तक की तरक्की
बरसात में भूनगो के डर से जल्दी खाना
और एक कार आने पर सारे मोहले का आ जाना
बला बला ना जाने कितना कुछ है बताने को
बस अब तो जी चाहता है गांव जाने को l
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