Sunday, October 16, 2022

आज हम फिर भूखे सो जाएंगे !

 दिन कुछ यूँ शुरू हुआ 

प्रातः लालिमा सूर्य की ललछर कर बैठी शहर 

कहीं चाय की चुस्की 

कहीं प्लेटों में भरा है जमके नाश्ता 

पर ये  क्या 

निकल पड़े क्यों कुछ छोटे-छोटे बच्चे 

लेकर बड़े-बड़े थैले 


मेरा भी दिन चाय की चुस्की से शुरू हुआ 

फिर यूं मेरी चाय छोड़ दी मैंने 

और उन बड़े-बड़े बोरे लिए बच्चों के आगे डट गया 

पूछा कहां को चले 

आवाज आई जाने दो भैया नहीं तो 

आज हम फिर भूखे सो जाएंगे 


हाँ अब सूर्य खिल गया 

कोई दफ्तर कोई विद्यालय 

कहीं कहीं कोई कोई निकल गया 

मैं फिराक में अभी रास्ते में रुक रहा 

बड़े-बड़े थैले लिए वो बच्चे 

सूर्य की भांति लौट पड़े 


बोरी में वजन काफी था 

न जाने क्या था क्या उसमें बाकी था 

फिर रोकने की चाह से रोका उनको 

सूर्य की धूप ने उन सूर्य का 

हौसला बढ़ा दिया था 

शायद मेरे प्रश्नों का उत्तर था 

अब पूछ लो भैया अब हम 

आज भूखे नहीं सो पाएंगे 


मेरे प्रश्न का उत्तर मुझे मिल चुका था 

कुछ दूर उन थैलो को पहुँचाने की मांग थी मेरी 

वो दो ने मानी तीन ने ठुकरा दी 

आखिर  मैं जीता उन विजयी रणधारों से 

दो का थैला बस कुछ कदम ले चल 

मैं थक गया 

शायद मेरी चाय और मेरा महंगा खाना 

मुझे जवाब दे रहे हो 


कब तक ऐ बच्चे यूँ बोरे उठाएंगे 

जो बस्तो से भारी बोरा है वो  कहां तक ले जाएंगे

अच्छा सूर्य तुम तो मेरे मित्र हो 

मुझे समझाओ 

तुम्हारी किरण इनको रोशन नहीं करती 

कर दो इन बोरो का वजन कम 

ऐ सूर्य नहीं तो ऐ आज फिर भूखे सो जाएंगे!

-नीरज 

आओ अब मेहनत करते हैं

 उठकर जो देखा मैंने सबसे पहले मेरी बूढ़ी मां को प्रातः में

पिछले दिन की खूब थकावट और फिर भी नहीं दिखी बिस्तर में 

और मेरे पिताजी प्रातः उठे विकराल कमर का दर्द लिए 

फिर कार्यालय जाने को कमर दर्द के साथ तैयार दिखे 

कैसे ए मेरी धरती और मेरा आसमाँ दिन भर चलते हैं 

हां अब मेरी बारी आओ अब मेहनत करते हैं 


फिर दिखा सूर्य मतवाला बादलों में चमाचम निकलता आता 

कल जो लौटा था संध्या को बुझ बुझ छुपता  जाता 

तभी दिखी गौरैया मुंह में लिए हुए इक बड़ा सा दाना 

कैसे जाएगी घर को लेकर यह बच्चों के लिए ये खाना 

कैसे यह मेरा यार और मेरी सहेली दिन भर सवंरते हैं 

हां मेरी बारी आओ मेहनत अब करते हैं 


नहा धोकर निकला जो मैं, मुझे दिखा थैला  टांगे छोटू 

उम्र वहीं आठ-नौ साल पर थैला था खूब भरा बसेतू 

तभी दिखी इक गुड़िया पतली सी रस्सी पर चलती 

छोटे छोटे पांव थे जिसके आखिर कैसे ए करतब करती 

कैसे यह मेरी गुड़िया और मेरा छोटू दिनभर विचरते हैं 

हां अब मेरी बारी आओ अब मेहनत करते हैं 


बैठा जो रिक्शे में देखा रिक्शेवाले कतई बूढ़े दादा को जैसे पतंगे 

उम्र करीबन 80 फिर भी ए  मुझे बस अड्डे पहुंचा देंगे 

तभी दिखी इक बूढ़ी मां लेकर जाती फूलों का भारी टोकरा 

झुक कर  चलती और फूलों की माला बेचती ये करती सवेरा

कैसे ए  मेरी बूढ़ी अम्मा और बूढ़े दादा दिन भर खटते हैं 

हां अब मेरी बारी आओ अब मेहनत करते हैं !

-नीरज 

Monday, August 29, 2022

युद्ध अभी जारी है

 हां अंधेरा है घना और रातें अत्यंत ही काली 

प्रातः सूर्य उगेगा बादल चमकेगा धूप भी होगी मतवाली 

और फिर संध्या को सूर्य का ढ़लना बरकारी है 

थके रुके और फिर चल पड़े क्योंकि युद्ध भी जारी है 


हजारों चेहरे और उनके लाखों सवाल और ये कटु बोली 

फिर उनकी तारीफे और सराहना करना जैसे होली की रंगोली 

अंधेरा फिर रात और जुगनू से कहते सुनना अब हमारी बारी है 

थके रुके और फिर चल पड़े क्योंकि युद्ध अभी जारी है


पत्तों का मुरझाना फिर नीचे गिर जाना और मिट्टी हो जाना 

फिर नए पत्तों का आना और उससे पेड़ों का लह लहाना 

वह मिट्टी हुए पत्तों का पेड़ बनने का प्रयास इस बारी है 

थके रुके और फिर चल पड़े क्योंकि युद्ध अभी जारी है 


टूटते तड़पाते यह पहाड़ नीचे गिराते रोज पत्थरों को

गिरे हुए पत्थरों का टिला बनना और देखना पहाड़ों को 

उन्हीं तिलों का माउंट बन्ना समझदारी है 

थके रुके और फिर चल पड़े क्योंकि युद्ध भी जारी है 


चीटियों का भोजन की तलाश में कोसों दूर तक जाना 

पहाड़ों में चढ़ते चढ़ते फिसल फिसल कर नीचे आना 

वापस इन को देखो पहाड़ों पर चढ़ना अभी जारी है 

थके रुके और फिर चल पड़े क्योंकि युद्ध भी जारी है 


बारिश की बूंदों का धरती पर आकाश से गिरना 

और धरती से वापस आकाश पर जाना जारी है 

उन बूंदों का धरती पर छुप-छुपकर जगना

थके रुके और फिर चल पड़े क्योंकि युद्ध भी जारी है 

-नीरज नील 

Sunday, August 28, 2022

आसां नहीं कतई पर्वत हो जाना

 गिरना, टूटना फिऱ फूठना और चोटिल हो जाना 

और फिर बने रहना हवाओं से लडे जाना

आंधी तूफान बरसात और चक्रवात का आना 

वास्तव में आसां नहीं कतई पर्वत हो जाना !


तड़कना, गड़कना व बादल की गर्जन का आना 

और फिर बने रहना भूकंप से लड़े जाना 

बादलों की बिजली व कभी-कभी ज्वालामुखी का आना

वास्तव में आसां नहीं कतई पर्वत हो जाना !


मैं पर्वत हूं मुझे मेरा हर रोज यह बताना 

और फिर गिट्टीयों व पत्थरों को समझाना 

इंसानी मशीनों में नई तकनीकों का आना

वास्तव में आसां नहीं कतई पर्वत हो जाना !


मैंने रखे हैं कई देव और महादेव को पाना 

और फिर इन नदियों को अपने से निकालना 

नदियों का भयावह रूप इनसे बचे जाना

वास्तव में आसां नहीं कतई पर्वत हो जाना !

-नीरज नील 

Wednesday, August 24, 2022

कहीं माँ तुम बूढ़ी तो नहीं हो रही हो?

माँ एक बात पुछू बताओगी ?

तुम्हारे ये सफ़ेद बाल और कमर का ये दर्द 

और तुम्हारी चमड़ियों का यूँ सिकुड़ना क्यूँ ?

सुबह सबसे जल्दी उठकर देर से सोना 

और तुम्हारी आवाज का यूँ कमजोर होना 

बताओ ना माँ चलते चलते  क्यूँ रुक जाती हो ?

कहीं माँ तुम बूढ़ी तो नहीं हो रही हो?


माँ एक बात पुछू बताओगी ?

अब पहले सा तुम चिल्लाती क्यूँ नहीं 

माँ अब तुम्हारे हाथो से क्यूँ गिर जाते है बर्तन 

माँ ये घर की सीढियाँ क्यूँ हैं तुम्हारी दुश्मन 

माँ क्यूँ बात बात पर अब रो देती हो?

बताओ न माँ रात में क्यूँ घुटनो पर बाम लगाती हो ?

 कहीं माँ तुम बूढ़ी तो नहीं हो रही हो?


माँ एक बात पुछू बताओगी ?

क्यूँ पापा की डांट का अब तुम पर असर नहीं होता 

क्यूँ नहीं लड़ती पहले की तरह डट कर पापा से 

माँ अब तुम्हारी साड़ियों के रंग इतने हल्के क्यूँ?

और क्यूँ करदी कम तुमने हाथो की चूड़ियां 

बताओ ना माँ क्यूँ कई बार दिन में बेशुद सी लेट जाती हो?

 कहीं माँ तुम बूढ़ी तो नहीं हो रही हो?


माँ एक बात पुछू बताओगी ?

क्यूँ देर तक मंदिर में बिताने लगी हो अपना समय 

क्यूँ मुझसे इतना तेज लिपटकर रोती हो जब मैं शहर के लिए निकलता हूँ 

क्यूँ कई दफा फ़ोन पर तुम्हारी आवाज सुन्न सी हो जाती है 

क्यूँ करती हो बात कुबरी और डंडो की 

बताओ ना माँ क्यूँ तुम्हे देख कर कई दफा फीके पड जाते है मेरे जज्बात 

 कहीं माँ तुम बूढ़ी तो नहीं हो रही हो?

-नीरज नील

हाय मेरे वो जवान

 वैलंटाइन के दिन सबके इजहार का वक्त था

मौसम भी दोपहर के बाद का जरा सा शख्त था

कुछ पते से निकलने से पहले सूना गए परवान

कुछ को इंतजार था लक्ष्य का हाय मेरे वो जवान


पुलवामा की सड़को पर माटी में जो नगीना पड़ा था

उसका शरीर व सीना भर्ती से पहले ही तगड़ा था

कुछ उठ उठ कह रहे पहले सुनाया होता फरमान

तो आतंकी तेरे चीथड़े चीथड़े करते मेरे वो जवान


हम कल भी कुछ न सीखे आज भी सब व्यस्त था

कुछ के 1 पर भारत माँ का 42 सूर्य हुआ अस्त था

दहल गई होगी माँ हॉल देख उस का सीना लुहान 

पत्नी पूछ रही थी कब लौटेगा घर मेरा वो जवान


फिर अगली सुबह उजला सूर्य उगने को तैयार न था

कुछ तो शर्म आयी होती उनके हाथो में औजार न था

एक सैनिक टूट कर उठा और बोला मेरा देश महान

लहू में लहू से लिप्त फिर तिरंगे में मेरा वो जवान

-नीरज नील 


#पुलवामा_के_जवानो_को_समर्पित !

लाल सो गया

शब्दों में उसके एक बहोत बड़े ज्ञान की परिभाषा थी 

बस बहन पढ़े कुछ अमोघ यही उसकी अभिलाषा थी 

मैं भी देख नहीं सका उस वेंटीलेटर के परवाने को 

वो बाप रो रोकर कहे भगवान मेरे ये क्या कर गया 

आज भी मिलकर बोलते है वो के मेरा लाल सो गया     


पढ़ने लिखने में खुद से बेहतर रोज हुआ करता था 

कुछ किताबे माँ पिता से कुछ खुद ख़रीदा करता था 

फिर बहना पूछ पड़ी भइया क्यों उठत नहीं उठाने सो 

हँसी फिर खेली फिर आकर ये और बोली ये क्या हो गया 

माँ बाहर कहते है सब मेरा भइया और तेरा लाल सो गया     


हम सबके लिए वो रात बस एक सफर भर तो थी 

सोयी नहीं वो माँ उसके बेटे की सांस वेंटिलेटर से जो थी 

वो माँ फिर जोर झपट से  हट कर बैठी  उसे उठाने को 

आखिर हमारा उस रात का सफर बीता बाल तो गया 

मगर माँ जरा सा सोई नहीं पर उसका लाल सो गया  

-नीरज नील 

#स्व. अंकुश तिवारी को समर्पित !

नानी मैं तुमसे हूँ यूँ रूठा

फिर कल की तरह आज हो गई 

वही प्रातः, फिर दोपहर, फिर शाम हो गई 

वो घर लगता है, जैसे कुछ यूँ छूटा छूटा 

बिन बताए गई हो तुम तब से मैं रहता यूँ रूठा रूठा


मेरे जहां की, जहां हो तुम 

मैं यहां, माँ यहां, आखिर कहां हो तुम? 

एक खत लिख देती मैं पढ़ लेता 

पढ़ के रोज ही थोड़ा थोड़ा रो लेता 


जब से गई हो मेरा मन नहीं कि मैं वँहा जा सकूं 

नानी कहां छुपी हो?, यही मैं फिर से चिला सकूं 

जैसे लगता है मामा के घर की बचपन की सारी कहानी ले गई 

नानी उस घर से तुम मेरा शब्द नानी ले गई 


कई बार तो तुम्हें मां की दोहरी शक्तियां दिखती थी 

पर मुझे कभी-कभी तुम बहुत बीमार सी लगती थी 

नानी अब बुलाओ अपने घर आऊंगा मैं

और बिन कुछ मांगे ,बिन लिए विदाई जाऊंगा मैं!

-नीरज नील 

जब मैं कविता लिखता हूँ

 एकाग्र मन से अब शब्दों में उलझकर शब्दों से खेलता हूँ 

शब्दों को पूज्यनीय चिंतनीय मान कर ये चादर बुनता हूँ 

खुद को लेकर थोड़ा चिंतित के मै क्या कब क्यों करता हूँ 

सत्य स्वर्ग में खुद को पाता हूँ जब मैं कविता लिखता हूँ   


उन्नति और सत्य को लेकर प्रगति की और जो चलता हूँ 

कुछ पंक्तियों से दुखी तो कुछ से खुद को देख मचलता हूँ 

खुद को सबसे बड़ा कवि समझ लोहो को श्रोता समझता हूँ 

माँ के चरण में बस सा जाता हूँ  जब मैं कविता लिखता हूँ   


लिखता तो ऐसे हूँ जैसे जग भूलकर खुद ज्ञानी से मिलता हूँ 

क्लेश विकारी व प्रेम बीमारी छोड़ ध्यान कलम पर रखता हूँ 

मिटते कटते है मेरे काले अतीत तभी मैं इसे अपना कहता हूँ 

मेरा प्यारा चेहरा हस खिल उठता है जब मैं कविता लिखता हूँ   


डायरी संसार के बाद इसे मैं तब कविशाला पर लेकर उतरता हूँ

सम्मान मिले या ना मिले पर लोगो को सुना सुना सा लगता हूँ 

कविता का सरताज नहीं पर अपने शब्दज्ञान को हमेशा सुनता हूँ

शब्दों का महराज समझता हूँ खुद को जब मैं कविता लिखता हूँ

-नीरज नील 

जैसे कुछ तो चाह रही कलम

  

कितना सुंदर लिखती है यह कलम शब्दो का गुच्छाया

कभी पर्वत को हिलाया है तो कई दफा रोते को हसलाया

कन्याकुमारी से लेकर उधमपुर तक परचम को लहराया

रुकी नहीं ये देश की होकर नभ नभ में यह हुई समम

समझो इसे और लिख दो ऐसा जैसे कुछ तो चाह रही कलम


बचना हर दिल की सीमायें यह लाँघ रही नहीं कोई बचपाया

अधर्मी अपराधी अभी भी घूम रहे बहन बेटी को बनाते साया

मिला नहीं सम्मान शहीदों को इसे देख वो भी है पछताया

देश अभी भी भूखा सोता है अब इससे करो कुछ बड़े कर्म

पढ़ो और दर्द लिखो ऐसा जैसे कुछ तो चाह रही कलम


भीड़ अभी भी नहीं जुटी है मंदिर में जैसी होती मंदिराशालाया 

जाति धर्म खतरे में है इसी मोड़ पर आकर इंसान है चकराया 

अब तो माँ बाप भुलाये जाते है बहुओ का राज है पनपाया

न्याय अभी भी बिकता है और अन्याय फिर ले रहा जन्म

कर्त्वयपरायण लिखो ऐसा जैसे कुछ तो चाह रही कलम


अनाथो के नाथ नहीं और नथो के पीछे जग है भरमाया 

कुछ घर आज भी रो कर सोते है कुछ घर है खुशिआया

स्वछता अभियान चले है पर गलियों में कचरा है समाया

पवित्र सिर्फ गंगा ही ना हो मनुष्य भी हो निर्छल निर्मम

श्वेत जग लिखो ऐसा जैसे कुछ तो चाह रही कलम!

-नीरज नील 

Tuesday, August 23, 2022

चलो तुम्हेँ किनारे लगा दूँ

ऐ बाधा तुम्हे कतई शर्म नहीं आती है,

मैं इंसा हूँ जगाता हूँ ऐसे, जैसे दिया में बाती है 

आओ अब आ ही गयी हो, तो हौसले तुम्हारे बुझा दूँ 

सुनो बाधाओं ठहरो चलो तुम्हे किनारे लगा दूँ !


सूर्य तपे हुए हो तुम लगता है गर्मी तुम्हे भाती है 

तुम्हारी गर्मी तपन मेरा हौसला अब तपाती है 

आओ तपे हुए हौसलों को अब सितारा बना दूँ 

सुनो बाधाओं ठहरो चलो तुम्हे किनारे लगा दूँ !


जो लड़ नहीं सका ऐ बाधा तुमसे मैं वो इंसा नहीं 

आओ झुका दूँ तुम्हे, ऐ सूर्य मुझे तुमसा आना जाना नहीं 

पर मुझे ये पारी इक दफा जम के खेलनी है, तुम्हे ये समझा दूँ 

सुनो बाधाओं ठहरो चलो तुम्हे किनारे लगा दूँ !


मैदां भर चूका है खिलाडियों से, यंहा खेल जरूर कोई न कोई होगा 

तुम्हे ये सितारे ये बता दूँ, नित नित चलकर आसमा के चरम पर पहोंचोगे 

हो लाख फिर भी बाधाएं रोक सकती नहीं मुझे, तुम्हें ये बता दूँ 

सुनो बाधाओं ठहरो चलो तुम्हे किनारे लगा दूँ !


मेरे पुरखो ने रस्सी से चट्टानें जो काटी है 

जो कभी थी सख्त चट्टानें वो आज माटी है 

जुगनू कहता है, जागो साथ मेरे रात के नज़ारे दिखा दूँ 

सुनो बाधाओं ठहरो चलो तुम्हे किनारे लगा दूँ !

-नीरज नील

उम्मीद ही तो है

उम्मीद कितनी बेहतर चीज है  मुझे कुछ तुमसे, कुछ तुमको मुझसे जैसे धरती को आसमां से और बच्चे को अपनी माँ से उम्मीद पर ही तो टिका है ये सारा जहा...