Wednesday, August 24, 2022

जैसे कुछ तो चाह रही कलम

  

कितना सुंदर लिखती है यह कलम शब्दो का गुच्छाया

कभी पर्वत को हिलाया है तो कई दफा रोते को हसलाया

कन्याकुमारी से लेकर उधमपुर तक परचम को लहराया

रुकी नहीं ये देश की होकर नभ नभ में यह हुई समम

समझो इसे और लिख दो ऐसा जैसे कुछ तो चाह रही कलम


बचना हर दिल की सीमायें यह लाँघ रही नहीं कोई बचपाया

अधर्मी अपराधी अभी भी घूम रहे बहन बेटी को बनाते साया

मिला नहीं सम्मान शहीदों को इसे देख वो भी है पछताया

देश अभी भी भूखा सोता है अब इससे करो कुछ बड़े कर्म

पढ़ो और दर्द लिखो ऐसा जैसे कुछ तो चाह रही कलम


भीड़ अभी भी नहीं जुटी है मंदिर में जैसी होती मंदिराशालाया 

जाति धर्म खतरे में है इसी मोड़ पर आकर इंसान है चकराया 

अब तो माँ बाप भुलाये जाते है बहुओ का राज है पनपाया

न्याय अभी भी बिकता है और अन्याय फिर ले रहा जन्म

कर्त्वयपरायण लिखो ऐसा जैसे कुछ तो चाह रही कलम


अनाथो के नाथ नहीं और नथो के पीछे जग है भरमाया 

कुछ घर आज भी रो कर सोते है कुछ घर है खुशिआया

स्वछता अभियान चले है पर गलियों में कचरा है समाया

पवित्र सिर्फ गंगा ही ना हो मनुष्य भी हो निर्छल निर्मम

श्वेत जग लिखो ऐसा जैसे कुछ तो चाह रही कलम!

-नीरज नील 

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