फिर कल की तरह आज हो गई
वही प्रातः, फिर दोपहर, फिर शाम हो गई
वो घर लगता है, जैसे कुछ यूँ छूटा छूटा
बिन बताए गई हो तुम तब से मैं रहता यूँ रूठा रूठा
मेरे जहां की, जहां हो तुम
मैं यहां, माँ यहां, आखिर कहां हो तुम?
एक खत लिख देती मैं पढ़ लेता
पढ़ के रोज ही थोड़ा थोड़ा रो लेता
जब से गई हो मेरा मन नहीं कि मैं वँहा जा सकूं
नानी कहां छुपी हो?, यही मैं फिर से चिला सकूं
जैसे लगता है मामा के घर की बचपन की सारी कहानी ले गई
नानी उस घर से तुम मेरा शब्द नानी ले गई
कई बार तो तुम्हें मां की दोहरी शक्तियां दिखती थी
पर मुझे कभी-कभी तुम बहुत बीमार सी लगती थी
नानी अब बुलाओ अपने घर आऊंगा मैं
और बिन कुछ मांगे ,बिन लिए विदाई जाऊंगा मैं!
-नीरज नील
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