Thursday, December 12, 2024

जब मैं कविता लिखता हूँ

एकाग्र मन से अब शब्दों में उलझकर शब्दों से खेलता हूँ 
शब्दों को पूज्यनीय चिंतनीय मान कर ये चादर बुनता हूँ 
खुद को लेकर थोड़ा चिंतित के मै क्या कब क्यों करता हूँ 
सत्य स्वर्ग में खुद को पाता हूँ जब मैं कविता लिखता हूँ   

उन्नति और सत्य को लेकर प्रगति की और जो चलता हूँ 
कुछ पंक्तियों से दुखी तो कुछ से खुद को देख मचलता हूँ 
खुद को सबसे बड़ा कवि समझ लोहो को श्रोता समझता हूँ 
माँ के चरण में बस सा जाता हूँ  जब मैं कविता लिखता हूँ   

लिखता तो ऐसे हूँ जैसे जग भूलकर खुद ज्ञानी से मिलता हूँ 
क्लेश विकारी व प्रेम बीमारी छोड़ ध्यान कलम पर रखता हूँ 
मिटते कटते है मेरे काले अतीत तभी मैं इसे अपना कहता हूँ 
मेरा प्यारा चेहरा हस खिल उठता है जब मैं कविता लिखता हूँ   

डायरी संसार के बाद इसे मैं तब मंचशाला पर लेकर उतरता हूँ
सम्मान मिले या ना मिले पर लोगो को सुना सुना सा लगता हूँ 
कविता का सरताज नहीं पर अपने शब्दज्ञान को हमेशा सुनता हूँ
शब्दों का महराज समझता हूँ खुद को जब मैं कविता लिखता हूँ

अंतिम कुछ भी नहीं है

सुनना, जानना, समझना, लड़ना और फिर जीतना 
मानो यही जीवन हो और यही हर रोज जानना 
तूफानों में पंख फैलाए उड़ना अब कम भी नहीं है 
तुम यूं ही लड़ना रोज क्योंकि अंतिम कुछ भी नहीं है 

देखना छुलेना फूंकना ढकेलना और फिर झकझोरना 
दिखादो मैदा को के तुम ही हो सबसे बड़े शेर यहां 
आसमां को छूकर आओ क्यूंकि तुम्हारी उड़ान अब कम भी नहीं है 
तुम यूं ही लड़ना रोज क्योंकि अंतिम कुछ भी नहीं

घिसाड़ना चलना दौड़ना और फिर ढकेलना
खिला दो क्यारी का हर फूल तुम ही सबसे बड़े माली यहां
नापों पर्वत की हर छोटी क्यूंकि तुम्हारी चाल कुछ कम भी नहीं हैं 
तुम यूं ही लड़ना रोज क्यूंकि अंतिम कुछ भी नहीं हैं 

अरे जनाब अब चाय पीजिए

हड़बड़ हड़बड उठिए और काम पे भागिये 
ध्यान को जरा ध्यान से काम पे लगाइए 
दिमाग, गर्म , टेंशन, तनाव चिंता फिक्र सब छोड़िए
मुस्कुराइए खुद से खुद में अरे जनाब अब चाय पीजिए

किसी से परेशान है तो उसे किनारे लगा दीजिए 
दिमाग को दिल के साथ लक्ष्य पर लगा दीजिए 
दिमाग गर्म टेंशन तनाव चिंता फिक्र सब छोड़िए 
मुस्कुराइए खुद से खुद में अरे जनाब अब चाय पीजिए

मत सोचिए इतना ,सोचिए पर दिल पर मत लगाइए
सोच को समझदारी के साथ अपने रास्तों पर लगा दीजिए 
दिमाग गर्म टेंशन तनाव चिंता फिक्र सब छोड़िए
मुस्कुराइए खुद से खुद में अरे जनाब अब चाय पीजिए

कप हो या कागज या कांच का गिलास उसे होठों से लगा लीजिए 
कुल्हड़ मे मिले तो मिट्टी में जीभ भी भिड़ा दीजिए
दिमाग गर्म टेंशन तनाव चिंता फिक्र सब छोड़िए 
मुस्कुराइए खुद से खुद में अरे जनाब अब चाय पीजिए 

खैर मैं कहीं जा भी नहीं सकता

खुद में रहने की आदत है मुझे
यूं तुम्हें अपने ख्यालों में मिला नहीं सकता 
आंखों से देखे ख्वाब, पैरों से पीछा करता रहा 
कितना थक गया हूं ये तुम्हें बता भी नहीं सकता 
खैर मैं कहीं जा भी नहीं सकता 

किसी को भी नहीं इजाजत की बिना मेरी मर्जी मुझे छू सके
मैं गर गिर भी जाऊं तो कोई मुझे उठा भी नहीं सकता 
अभी बहोत दूर तलक नहीं आया तो मैं यूं घबरा भी नहीं सकता
खैर मैं कहीं जा भी नहीं सकता

कुछ अधूरे ख्वाब है 
उनको पूरा करने की खातिर मेरे हाथ में मेरे वालिद की दवात है
जमाना गिरे तो गिर जाए 
मैं पिताजी की वो दवात हिला भी नहीं सकता
खैर मैं कहीं जा भी नहीं सकता l

बदनाम सड़क का किस्सा

जब मैं सड़क पर चलता हूं 
थोड़ा-थोड़ा डरता हूं 
डरता हूं कहीं कोई पीछे से कोई ठोक ना दे 
कहीं कोई चोट ना पहुंचा दे 
डरता हूं कहीं गिर न जाऊं 
कहीं घायल ना हो जाऊं 

डरता हूं कुछ अनहोनी ना हो जाए
कहीं कोई कहानी ना बन जाए 
और मैं यूं ही गुजर ना जाऊं 
कितना स्वार्थी हूं ना में 
सिर्फ खुद के बारे में सोचता हूं 
खुद तक और खुद के लिए सोचता हूं

आखिर ये सड़क भी तो डरती होगी
ये डरती होगी अपने कालेपन से
ये डरती होगी बदनामी से,
डरता होगा इसका एक एक हिस्सा 
क्यूंकि गांव में सुना है मैंने 
बदनाम सड़क का किस्सा !

वो घर याद आता है

वो घर याद आता है
मैं जब भी इस भोझिल हुई दुनिया से पककर 
मैं जब भी दुनिया के शोर शराबों से थक कर 
घर जाता था 
खूब सारे पेड़ों के बीच छिपा हुआ घर 
मुझे छिपा लेता था 
मेरी झूठी और सच्ची पहचान से 
उसे कोई मतलब नहीं था 
कि मैं कितना पढ़ा लिखा हूं 
और कितना पढूंगा लिखुंगा
आंधी और बरसात सबसे डटकर लड़ता था 

वो घर याद आता है 
उस घर में घुसते ही जो दरवाजा था
वो दादा की तरह ही उमरदार था 
थोड़ा धीरे खुलता था 
और घर में दरवाजे के बाद
एक पुराना तख्त और दो-चार पुरानी कुर्सियां 
बिल्कुल ही मेरे अरमानों की तरह थी 
लेकिन मां ने उस तख्त पर एक पुरानी चद्दर डाल रखी थी 
जो कि उस की सच्चाई छुपाती थी 
और उस घर की भी कीमत बढाती थी
वो घर याद आता है
कुर्सियों के जाल के बाद 
एक बड़ा सा आंगन 
जहां मैं कभी खेल नहीं पाया 
पर जीवन के सागर में जो भी बूंद बूंद
सी जब-जब छुट्टी मिलती थी 
मैं बैठता था उस आंगन में 
और निहारता था अपना सारा घर 
मां पिताजी का कमरा हो 
या शादी के बाद चिन्हित हुआ भाई भाभी का कमरा
या मेरा और मेरी बहनों का वो कमरा 
जिसमें छुपते थे हमारे कुछ छोटे-छोटे अरमान 
और दीवारों पर हमारी लंबाई तक का अनुमान 
और कमरे में वो जो बिछौना था
आह कितना जादुई था
जब भी मैं उसे ओढ़ता था
बेनींद सो जाता था
और तो और वो रसोई घर 
जहां से आता था
दुनिया के सबसे अच्छे होटल से भी अच्छा खाना
जिसे खाकर मैं सब भूल जाता था 
वो घर याद आता है

कितना कुछ मैं आंगन में बैठकर देख लेता था 
आंगन के साथ एक जीना भी था
जो मुझे और मेरी बहनों को 
आसमां तलक ले जाता था
और वो जीना जिंदगी के जीने से बिल्कुल अलग था 
ऊपर जाऊं तो भी घर नीचे आऊं तो भी घर 
और वो छत सच में कितनी सुंदर थी 
जो पेड़ों की बराबरी करने की कोशिश में थी
और चाहती थी आसमा को छू लेना
जो बारिश में खूब नहलाती थी
और कौन क्या बेचने आया है 
वहीं से दिखाई थी 
वो घर याद आता है

मैं कब का वो घर छोड़ आया हूं 
जिसने मुझे वो सब कुछ दिया 
जो कोई और दे नहीं सकता था 
मैं उसे अकेला तन्हा और तरसता हुआ छोड़ आया हूं 
वो घर याद आता है 

आंधी और बरसात में खड़कती होगी उसकी खिड़कियां
और चिल्ला चिल्ला कर मुझे बुलाती होगी 
उसे छूते हुए घर से मैं इतनी दूर आ गया हूं
की अब तो उसकी गिरती दीवारों की आहट भी 
अब मुझे भूल नहीं सकती क्योंकि मैं फिर एक नया घर
बनाना चाहता हूं पुराने घर से और दूर जाने की खातिर

गांव

अच्छा कितना प्यारा होता 
है ना गांव 
ना कमाने की फिक्र 
ना खर्चने का जिक्र 
शहर की सजावट इन इमारत व बतियों से
और गांव अब भी गेहूं की हरियाली 
और सरसों की पीली चादर ओढ़ता है
 
चिड़ियों का झुंड
और कुछ देसी कुत्ते 
और शाम को सूरज जैसे पेड़ों में छिप जाता हो 
बगुले मानो किसानों के साथ खेत संवारते हो 
और माटी मानो उसका अपना सा श्रृंगार हो 
रातों को मेंढक की टर्र टर्र हो या शियारो का हुयाना 
चूल्हे का वो धुआं और पेड़ों के हिलने तक की आवाज 
और रातों में जुगनू का अपनी बत्ती पर इतराना 

आत्माराम की चौराहे की चाय दुकान 
मानो फीका कर रही हो शहर का पुरा बाजार
सागोन की ऊंचाइयां और बेशर्म की वो झाड़ियां 
चिल चिलाती धूप के दुश्मन नीम और बरगद 
दादा की वो खटिया और दादी की तम्बाकू की चुनौटी 
गांव की बेटियों के शहर जाने के सपने 
भैंसों का ताजा दूध चाचा के कुत्ते का इतराना

गायों का उतावलापन 
नल का लोटा मे ठंडा ठंडा गंगा जैसा पानी
बगिया के आमों के पेड़ों के नाम
फरवार दुआर मोहार और किवाड़
और तो और उसपर
बनिया की चकरोट वाली दुकान 
नीम पर पड़ा झूला और धनतेरस का मेला
माहरीन का बुझाउआ दाना और राजेंद्र का सटला 
ढेबरी से लालटेन तक की तरक्की 
बरसात में भूनगो के डर से जल्दी खाना
और एक कार आने पर सारे मोहले का आ जाना
बला बला ना जाने कितना कुछ है बताने को
बस अब तो जी चाहता है गांव जाने को l

वो बच्चे

हम अक्सर कहते हैं 
कि हमें मिला ही क्या है 
हमें खुदा ने दिया ही क्या है
और न जाने कितनी चीजों को लेकर 
उलझे रहते हैं हम

हमारे दुख
हमारी नौकरियां और चंद पैसे
और कुछ ये खाक से बने इंसान 
न जाने क्या-क्या काफी कुछ चीज हैं 
जिनसे हम रहते हैं परेशान
ऐसी बहुत सारी परेशानियों से घिरा हुआ इंसान 
मैं उसे दूंगा एक काम की सलाह
वो ना जाए किसी बड़े अस्पताल 
न जाए शमशान 
पर पहुंचे किसी अनाथ आश्रम में 

जहां हों कुछ चांद सितारे 
जो हर रोज ही अंबर छूते हो
और हर रोज ही गंगा उनसे बहती हो
हर रोज ही धरती उनसे मिलती हो
जज्बात आभूषण हो जिनके
और अंबर मानो उनकी छत हो

और देखिएगा उनके हिस्से में क्या आया
और जाने कौन है उनके अपने 
और कौन उन्हें पुकारता यूं पुकारता होगा ?

मैं ये सब देख कर घर लौट तो आया
लेकिन वो
मासूम और दुनिया से बेफिक्र प्यारे चेहरे 
मेरे सारे जहां में घर लिए बैठे हैं 
लगता है जैसे मैं तो घर आ गया 
पर मेरा सब कुछ वह बच्चे लिए बैठे हैl

बरगद

एक बूढ़ा बरगद 
उम्र काफी थी 
और चौड़ाई इतनी कि उसको संभालने 
के लिए चबूतरा बनाना पड़ा 
जिसकी छांव में बैठ सके बच्चे 
और सो सके मजदूर 

किसी ने कहा इसमें भूत है
किसी ने कहा इसमें जींद है
किसी ने उसमे भगवान के होने का एहसास दिलाया 
लेकिन मुझे वो लगता था 
हजारो चिड़ियों का शजर
और कई गिलहरियों का घर 

बचाता था हमें गर्मी से
मानो हमारा तो सुंदर आसमा था 
चिड़ियों की चह चाहट इतनी 
कि मानो बरगद ही गाता हो

इतने बड़े वट में छोटे फल 
और टहनियां में दूध जैसा रस
न जाने कितनी बीमारियों का इलाज
और गिलहरियों का भोजन
लेकिन अब वो बरगद वहां नहीं है
कहां गए होंगे सब भूत और भगवान
पता नही
लेकिन ढूंढो ना उन चिड़ियों
और गिलहरियों को 
जिनका पता सिर्फ बरगद था

जब मैं कविता लिखता हूँ

एकाग्र मन से अब शब्दों में उलझकर शब्दों से खेलता हूँ  शब्दों को पूज्यनीय चिंतनीय मान कर ये चादर बुनता हूँ  खुद को लेकर थोड़ा चिंतित के मै क्य...