Saturday, November 16, 2019

सपना सपना ना रहे

उठो क्या अभी तक तुम राह पर नहीं आए
देखो इक भंवरा पुष्पो पर प्रभुत  प्रभुत भिनभिनाये
संध्या तक वो भर देगा शहदो के बड़े पिपिहे
सपना सपना ना रहे राह पर तो निकलिए

बिन राहों के घर कहां बिसरते मिलते हैं
क्या युं थमें ही दरिया सागर से मिलते हैं
निरो का कुटुंब समेटे दरिया उलक्षत-विलक्षत चलते हैं
सपना सपना ना रहे अब राह पर निकलते हैं

आदम ना चलता राहों पर तो क्या मिलता वो इंसा को
ये जो छिप कर बैठे हो गुमनामी बस्ती में सिमट जाने को
अभी थिरक कर समय पड़ा है फिर उठकर चल पाने को
सपना सपना ना रहे इस समय तुम्हें भी देखें आदम से इंसा बन जाते को

तिलस्मों का जंजाल बनाए बैठे हो खुद को दुनिया की नजरों में
तुम भी एक अंतर बोध के राजा हो सकल जगत हिलाने को
जब यम आएगा तुम्हें ले जाने को वो नहीं समझता समझाने से
सपना सपना ना रहे राहों को आभास कराओ अपने कदमों के पैमाने से

तुम यह जंग जीत सकते हो बिन किसी और हथियार के
तुम भी तुगं से प्रीत कर सकते हो खुद का बौखलपन उतार के
एक पहली जंग खुद से लड़ो फिर संग्राम में आवाज दो पुकार के
सपना सपना ना रहे देखो अपनी गलत सोच उतार के !!

2 comments:

  1. so inspiring....................

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  2. https://neerajshukla889.blogspot.com/2019/11/blog-post_15.html?m=1#comment-form

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उम्मीद ही तो है

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